गौरैया,
छत पर बैठी गौरैया,
हर्षित करती मैन का कोना,
चंचलता को देखने उसकी,
ले जाता गोंदी दोना।।
गेंहू के कुछ दाने जो,
बिखर रहे हैं इधर उधर,
चीं चीं करते रहकर चुगती,
फुदक फुदक कर इधर उधर।।
आकस्मिक एक शैतान जगा,
न जाने क्या मन में आया,
न देख सका उसकी चंचलता,
पड़ा एक कुदृष्टि का साया।।
लगा घात था बैठा कोई,
उसे सभी अनभिज्ञ लगा,
हो गए प्राण त्वरित छू मंतर,
कंकर ज्यों छूट गुलेल लगा।।
कितने निष्ठुर हो गए हैं हम,
न कुछ मात्र दया का भाव रहा,
इस मानव के मन के कारण,
किस किसने है घाव सहा।।
जब कोई प्यारी गौरैया देखो,
थोड़ा स्नेह जता देना,
होकर इन्द्रिय बशीभूत,
न कोई घाव लगा देना।।
✍✍© Mohit