वफ़ा ने बेवफ़ाई का काम किया हैं,
मेरे दिलबर ने परिचित होकर भी अपरिचित बनने का नाटक कर मुझे बर्बाद किया हैं।
परिचित थें तुम मेरे इश्क़ थें,
फिर भी कभी पुकारा नहीं।
अपरिचित बने रहें,
कभी इश्क़ हैं ये स्वीकारा नहीं।
इश्क़ तो तुम्हें भी था,
मगर तुमने कभी जताया नहीं।
एक आस थीं के कभी तुम स्वीकारोगें,
मगर ऐसा हुआ नहीं।
अपरिचित से परिचित हो गए पहले,
फिर सब जानकर अपरिचित कर गए मुझे।
जानकर सारी कमज़ोरियाँ मेरी,
मुझे तन्हा छोड़ गए।
जब बात चलीं वफ़ा की,
बेवफ़ा मैं ठहराई गई।
जब इश्क़ जुनून बन गया था तुम्हारा,
तब मैंने सब कुछ सहा था।
फिर जब मैंने अपने बारे में सोचा,
तब क्यों मैं गुनहगार कहलाई गई?
क्या यहीं तेरी मोहब्बत थीं?
क्या यहीं तेरी चाहत थीं?
क्या यहीं तेरी इबादत थीं?
क्या यहीं तेरी रिवायत थीं?
क्यों अपराधी सिर्फ़ मैं कहलाई?
क्यों गुनहगार सिर्फ़ मैं कहलाई?
क्या धोखा मैनें नहीं पाया था?
फिर क्यों सिर्फ़ मुझे ही मतलबी बताया गया?
एक हसीन जिंदगी तबाह हुई हैं,
एक खुशहाल जिंदगी बर्बाद हुई हैं।
आज अक्सर तन्हाईयों में सोचतीं हूँ,
जिंदगी की इस उथल-पुथल से तो अच्छा होता
के कभी हम मिले ही न होतें।
एक अजीब दौराहे पर आकर खड़ी हैं मेरी जिंदगी,
जहाँ से आगे बढ़ जाना हैं या वापस खुद को पाना हैं इस बात की भी ख़बर नहीं हैं मुझे।
आज सोचतीं हूँ गर पाकीज़ा इश्क़ की ये इंतेहा हो सकतीं हैं,
तो न जाने तेरे दोगलें इश्क़ का क्या हाल होता।
अपरिचित से थें पहले भी,
अब इतनें परिचित होने के बाद भी अपरिचित ही नज़र आतें हो।
हाँ वफ़ा ने बेवफ़ाई की,
दिल तोड़ा जिंदगी बिखेरी।
©दीपशीखा अग्रवाल!