“बोझ बस्ते का हो या ज़िम्मेदारीयों का,भारी होता है।”
कहने के लिए यह मात्र एक पंक्ति है अपितु अगर ग़ौर करें तो सार्वभौमिक सत्य को समेटे हुआ है।
एक उम्र गुज़रती है बिना किसी चिन्ता के,खुशीयों एवं मस्ती-मज़ाक,खेल-कूद,दौड़ा-भागी या सीधे शब्दों में कहूँ तो……….
बचपन की गोंद में।
बचपन जिसमें समाहित होती है मनुष्य के जीवन की अलौकिक स्मृतियाँ,जिनके स्मरण मात्र से हृदय प्रफुल्लित हो उठता है,होंठो पर सन्तुष्टि की मुस्कान शोभायमान हो जाती है एवं ललाट ज़िम्मजदारियों की रेखा से परे उर्वशी के सौन्दर्य के समान चमक उठता हैं।
दो पल के लिए ही सही पर वह इसांन सब कुछ भूल कर उस सुकून की अनुभूति करता हैं,
जिसे उसने बीताये थे सालों पहले,माँ के लाड-प्यार और लोरियों,दादी की परियों की कहानीयों,बहनो से लड़ाईयों एवं दोस्तों के संग खेल-खिलौनों मे।
उस बचपन के गुज़रते-गुज़रते बस्ते का बोझ बढ़ता चला जाता है।जिस पीठ पर बाबा के दुलार की थपकियां पड़ती थी,जिस कन्धें पर छोटे भाई को बिठाकर खिलाया था,वो स्कूल के बस्ते के भार के नीचे दबता चला जाता है।
बाल्यकाल………
जिसमें हृदय की कोमलता,निर्मलता एवं निश्चल स्वभाव एवं चित्त को मोह लेने वाला अप्रीतम सौन्दर्य विराजमान होता है,जिसकी एक झलक मात्र से सारा तनाव तिमिर में विलुप्त-सा हो जाता है।
धीरे-धीरे उम्र बढ़ती जाती है,बस्ते के भार से दबती जिन्दगी कब जिम्मेदारियों का भारी भरकम बोझ उठाने लगती है,एहसास ही नहीं होता।
जो बालक संन्ध्या कालीन माँ के आँचल में लिपट कर सो जाया करता था,वो आज आजीविका के लिए रात-रात भर कल-कारखानों में पसीना बहाता है या गणित के सूत्रों से मशक्कत करता हुआ आंग्ल भाषा सीखता,चार बाय छ: के कमरे में रजनी के उजियाले के सुकून से दूर एक छोटे से लैम्प की रौशनी में,हृदय में तमाम आशायें एवं उम्मीदें लिए सिमट जाता हैं।
नज़रिया एवं संकल्प…..हाँ,
यही शब्द है जो इस ज़िम्मेदारियों के बोझ को उठाने की,परेशानीयों से लड़ने की और तमाम मुसीबतों के सम्मुख विशाल पर्वत के समान वक्षस्थल ताने,निर्भीक,अख्खड़ एवं अडिग रहने की हिम्मत और जुनून से लबरेज़ कर देता है।जिसके कारण ये बोझ नहीं बस मंज़िल तक जाने की एक सीढ़ी लगती है,जिस परीक्षा में बिना उत्तीर्ण हुए,ये खुदा भी मेरी मदद नहीं करेगा।
सच ही कहा गया है,भगवान भी उसी की मदद करता है,जो स्वयं की मदद करना जानता है।
हालांकि भाग्य और भविष्य पर मेरा विश्वास नहीं तथापि इतना जानता हुँ कि यदि दशरथ माँझी पहाड़ तोड़ सकते है,मैरीकाॅम माँ की ज़िम्मेदारी निभाकर भी विश्वविजेता बन सकती है तो मैं क्यूँ नहीं,फिर क्यूँ न देगा भाग्य साथ और क्यूँ न बनेगा भविष्य।
अब मग में काटें लाख भी आये,
पग में छाले क्यूँ न पड़ जाए,
न रूका हूँ,न रूकूँगा,न डरा हूँ,न डरूँगा।
मैं चला हूँ तो चलूँगा,बढ़ा हूँ,बढूँगा।
-उज्ज्वल शुक्ला
तुझे लिखना तो चाह रहा हूँ पर लिख नही पा रहा हूँ…..
awesome …last 4 line was great 😍😅
next time try to make all lines grt🙏😊
Superb bro Kya word hain Aur likha yaar bahut khoob
Thanxx 🙏🤘