स्त्री (त्याग औऱ समर्पण की मूर्ती)
बचपन से बुढ़ापे तक जो लड़ती रही अस्तित्व के लिए,
कभी न सोचा अपने व्यक्तिव के लिए,
एक गीली माटी की तरह ढल गई ,
हर एक साँचे में जिसमे दुनियाँ ने ढाला,
कभी बेटी बन , कभी बहू बन, तो कभी पत्नी बन,
हर बार अपने आपको को दिलासा देती रही।
समर्पण ,त्याग और सहिष्णुता के नाम पर कर ,
कुर्बान खुद को ,
कत्ल अपनी भावनाओं का करती रही।
तरसती रही जिन्दगी भर सच्चे प्यार की तलाश में,
और बुढ़ापे में जब काया का कल्प शिथिल हुआ,
साथ छुटा जब साथी का,
माझी डोल गया, मन का पंछी जैसे उड़ गया,
जैसे किसी वीरान खाने में।
नीरस लगने लगा जीवन,
अब जैसे इंतजार हो अंतिम स्वासो का,
और जिन्दगी के अन्जाम का।
उस एक हसी शाम का,
और एक आखिरी सुकूँ की स्वांस का ।
-कविता जयेश पनोत