
युद्ध का बिगुल बज चुका है
अकल्पनीय मगर सत्य
सारी मानव जाति अपने बनाए
पिंजरे में है क़ैद बेबस
कभी सोचा न था
वक़्त का पहिया ऐसे धमेगा
हाँ कभी चाहा था
काश एक दिन के लिए ही सही
वक़्त ठहर जाए
ज़िंदगी की आपाधापी से सभी मुक्त हो
सारी दौड़ समाप्त हो
हर दिन एक जैसा हो
मगर इतना ना सोचा था
ये युद्ध प्रकृति का है
मानव के विरुद्ध
धरती-माँ ने किए है सारे मार्ग अवरुद्ध
आज बादल दिखने लगे है
पेड़-पोधे भी नाच-गा रहे है
पशु-पक्षी है हैरान
क्यूँ है ये इंसान परेशान
मानव ने सोचा था
अवतार पर एकधिकार क्या सिर्फ़ उसका है
नहीं, यहाँ सब को हक़ है बराबर
हे इंसान तू सुधर जा
अन्यथा कुछ भी हो सकता है
विकास की ये अंधी दौड़ तेरी
तुझे ही ले डूबेगी।
Written By: CA Sunita Agrawal